गुरुवार, 30 सितंबर 2010

बदलता समय

फिर वो ही लाशों की गिनती वो खूं के छीटें
अब तो अख़बार को छूते हुए डर लगता है
बह गया खून तेरी आँख से आंसू न गिरा
हंसने वाले तेरा पत्थर का ज़िगर लगता है
भरी दुनियां में मुझे तुझ से ही शिकवें क्यूँ है
तू मेरा कुछ नहीं लगता है, मग़र लगता है
कल जो आबाद था एक शहरे निगाराँ की तरह
आज मैदान सा ता हद्दे नज़र लगता है

तेरा ख्याल

एक तेरी याद है फैले हुये जंगल की तरह
आज भी जिस में भटकता हूँ मै पागल की तरह
म्रेरे कमरे में बसी रहती है तेरीखुशबू
ख़त महकता है तेरा आज भी सन्दल की तरह
जब कभी भीगते मौसम का खयालआता है
उड़ के आ जाते हैं बादल तेरे आँचल की तरह
एक तरफ हम है के दो दिन नहीं काटे जाते
कंही सौ साल गुज़र जाते हैं एक पल की तरह
अपनी आँखों में बसालो हमें काजल की तरह
हम भटकते हैं तेरे शहर में पागल की तरह
बेजार देहलवी

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

यादें

सुनो तूफान से आती हुई आवाज़ कहती है
किनारों तुम से हम अच्छे हैं तुम तो टूट जाते हो
नहीं आते हो मिलने दोस्तो,तुम को समझता हूँ
बहुत सी रस्म हैं दुनिया की जिन से छूट जाते हो

मेरी पलकों पे दिये और जलते क्यूँ हो ?
मैं जो गम भूल गया याद दिलाते क्यूँ हो ?
भूल जाना जिसे चाहा है हमेशा मैने ।
फिर वो ही बात मुझे याद दिलाते क्यूँ हो ?

बेज़ार देहलवी

सोमवार, 27 सितंबर 2010

तुम्हारे नाम

हो गए पूरेजो अरमां वो तेरे अरमां थे
रह गये जितने अधूरे मेरे सपने होंगे
कौन था और मेरे दर्द को सुन ने वाला
मेरे गीतौं के खरीदार भी अपने होंगें

ग़ज़ल
उस बेवफा को हल सुना कर भी क्या लिया ?
उस ने हकीकतों का फसाना बना लिया
परियों की दास्ताँन सुना अपने साथ ही
कल रात मैंने बच्चों को भूखा सुला लिया
तोहफ़े मैं दे गए थे जो आंसू हमारे दोस्त
उन जुगनुओं को पलकों पे मैंने सजा लिया
पागल समझ के लोग कुछ पथराव कर गए
उन पत्थरों से मैंने घरौंदा बना लिया
जितने दीये थे सब मैं हमारा लहू जला
ये और बात जश्न तो तुम ने मना लिया
तहज़ीब तो पड़ी है अँधेरे मैं आज भी
इंसा ने आज चाँद पे जाके भी क्या लिया
बस ये कुसूर था की मुर ववत थी आँख मैं
कमजोरीयों का फायदा सब ने उठा लिया
बेजार एक शेर लिखा हमने खून से
इक बेतुके ने वो भी ग़ज़ल से चुरा लिया
बेजार देहलवी

शनिवार, 25 सितंबर 2010

खामोशी

दिल हैं वीरान तो फिर दिल मैं बसायें कैसे
और अग़र भूलना चाहे तो भुलाये कैसे
मुझसे सब मेरी खामोशी का सब़ब पूछते हैं
कशमकश में हूँ तेरा नाम बतायें कैसे
एक मुद्दत से लगा रखा है मुंह को ताला
ये जो पलकों की नमी है वो छुपायएँ कैसे
याद करने से भी कुछ मिलता नहीं दिल को सुंकू
तुम्हीं बतलाओ तुम्हे भूल भी जायें कैसे
रत जगे कहकहे ख़ट्टी कभी मीठी बातें
सोचता हूँ के वो दिन लौट के आयें कैसे
मेरी खुद्दारी मेरे पांव पकड़ लेती हैं
तेरी दहलीज़ पे अब जायें तो जायें कैसे
सभी कहते हैं उसे भूल भी जाओ "बेज़ार"
ये बताता नहीं कोई के भुलायें कैसे

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

वो रंग भरना सका दर्द के फ़साने मैं
वो खुद ही रोंने लगा था मुझे हँसाने मैं
न जाने कितने ख्यालों में घिर गया होगा
जो उस को देर लगी फैसला सुनाने मैं
ये इल्तजा है मेरा इम्तहान मत लेना
कि रिश्ता टूट भी जाता है अजमानें मैं
वो ही तो निकला नतीजा जिसे निकलना था
मैं खुद को भूल गया हूँ तुझे भुला ने मैं
मुझे भी सहने की ताकत खुदा ने दे दी है
तुम्हे भी आने लगा है मज़ा सताने मैं
तालुक्कात को मत दोस्ती कहो बेजार
कँहा की दोस्ती और वो भी इस ज़माने मैं
बेजार देहलवी